SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली कनक आसण ग्रहै कहै अकिंचणा, बींजवे चमर ने वलिय निर बीजणा । समिती तीनज धरौ तौ इ साचा यति, पास राखौ नहीं ओघी ने मुहपति ।।११।। पर भणी कही मत थाओ परमादिया, काइ राइ प्रायश्चित आप न करो क्रिया । जाब हसावरा जुगति मु जाणम्यो, आखर महिर मो उपर आणिस्यौ ।।१२।। विहुं मुखे बोलतो लोक निन्दा लहे, ___ केवली होइ नै चिहु मुखे तु कहै। भला भला भव्य नोइ साच करि सर्द, जन तणी रात जाया तिके जस लहै ||१३।। प्रकृति म्हारी इसी काइ छ पापिणी, ओछी अधिकी सही ना सकु आपणी । वडिय ताहरी क्षमा बात तिण सहु वणी, ध्यान हिव ताहरौ तु हिज माथै धणी ॥१४|| अवगुण माहरा ते सहु अवगणी, भगवन देव सेवक करो मो भणी । स्वामी सेव्या विजयहर्प शोभा घणी, ___ वृद्धि वलि थाय जिन धर्मवर्द्धन तणी ॥१५॥ ॥ कलश ।। इम विलसी श्राअरिहंत पदवी, धन्य जगगुरु जगधणी, हिव सिद्ध हुवा आपरूपी जाव न दीये पर भणी। इण गुण प्रशंसा माहि निंदा काइ जाणी आपणी, आपजो अमनै उरि पहिज अरज श्री धर्मशी तणी १६||
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy