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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
कवित्त जसवन्तसिहजी (जोधपुर महाराज ) का स० १७३६ रे पोस माह मध्ये कयौ महाराजा जसवन्तसिहजी देवलोक हुआ पछलौ । देहरा पड्या तिरण समीय रो। हुतौं जसवंत ता थोक सगला हुंता,
हुती हिन्दुआं तणे वात हाथै । देखसी असुर कवण तजि देहरा,
सलकिया देव जसवन्त साथै ।।१।। पड्ये जिण जोध पौकार सगलैं पड़ी,
धरै नहीं अरज पातिसाह धीठौ। राह बंधी हुइ रखे कोइ रोकसी,
देवं जसवंत रौ साथ दीठी ॥२॥ हुतौ हिंदुआ तणौ धरम सूरा हरौ,
सबल चिता पड़ी देस सारें। दुख मरूवर तणा रखे हिव देखस्या,
ललकिया देव जसवंत लारें ॥३॥ सुणी सुर लोक में वात गजसीह रें,
हुसी हिदुवा तणी रखे हासी । आपण वीज निज अंश अवतारिया,
आवियो आप हिव देव आसी।४। कवित्त न० २ (जसवन्तसिहजी रा समईया पछलो ) मस्थर देस महाराज मोटी मरुद,
कड़ नहीं परज ने चित काइ ।