SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मवद्धन ग्रन्थावली केइ राग रंग मामि रस्त गुस्त होत जात, केइ तर्क विद्या मे विहस्त शुद्ध मती है। . हस्त सिद्धि धर्मसीह वादि हस्ति गस्त होहि, जैन मे जवरदस्त ऐसे मस्त जती है ॥१॥ समस्या-भान कर्यो के पतिद्रत पार्यो ठौर संकेत की आगैते आइ कैं, नायक सेज को साज सुधार्यो । आइ तिचा तव आई गइ रितु, है के उदास विलास विसायो। वैठि सकोचि सलज्ज न बोलत, नायक केतौ निहार कै हार्यो । साच कहौ अब क्यो न मिलौं तुम, ___ मान कों के पतिव्रत पार्यों ॥ १ ॥ भोजन विच्छती-सवैया इकतीसा आछी फूल खड के, अखंड से जो लड्डु होइ । ताकै संग ताजै ताजै खाजै फुनि खाईये ।। पैडनि सुप्रीति पूरी, लापसी तो थोरी थोरी । सी के स्वाद काज बूढा कुं बुलाईये ।। हेसमी की भइ हुंस, सावूनी को नहीं सू स । घी के भरे घेवर जलेबी यु अघाइये ।। फूल हुं ते झीणी फीणी, सब ही में खाड चीणी। । धर्मसी कहत कीनी पुण्य जोग पाईये ।।१।। चोखे नान्है कैर चूर्णं, चोखे छमकारे चणें । ,
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy