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________________ प्रस्ताविक विविध सग्रह , ११३ साचौ सरल सुजाण कहै सहु, बलि तिण गाहे रे वक।च०अ०३। पोते स्वारथ सुपाचा मिल, आप मुरादौरे एह । च० धन तिकै नर कहै श्री धर्मसी, जीपै तेहने रे जेह ।च० अरथ ।४। (मन) ( ४ ) ढाल-नायक मोह नचावियो चतुर कहौ तुम्है चुप सु, अरथ हीयाली ऐहो रे । नारी एक प्रसिद्ध छै, सगला पास सनेहो रे । चतुर ॥ १॥ ओलै बैठी एकली, कर सगलाई कामो रे। राती रस भीनी रहै, छोडै नहीं निज ठामौ रे । चतुर ॥२॥ चाकर चौकीदार ज्यु, बहुला राखें पासो रे।। काम करावं ते कन्हा, विलसै आप विलासो रे । चतुर ॥३॥ जोड़े प्रीति जणे जणे, नोडे पिण तिण बारो रे। करिज्यो वस धर्मसी कहै, सुख वाछौ जो सारो रे । चतुर ॥४|| . (-जीभ) आदे अक्षर, मझखरी, अतखरौ नैं वलैं ममखरौ सर्व एक कवित्त माहे सांगठा ही ज प्राण्या छ । कवित रक्षक बहु हित साधु, राति सूरज दिन नक्खत । सहु भोजन कटु जीह, नहींय सुचि पीड़ा दुखित ।। वृद्ध अछेह धन वयण पहिल हिव सुसते तूने । रिसि छोरू पति तेज, याम रिधि दुखित धुनें ।।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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