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________________ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली खाडि गाडि राखी ते कोइ खायसी। परिहा थेट नेट धरती में धूड़ ज थायसी ।। १६ ।। थिर न रही जगि कोइ इसो बोले थ थो। फोगट फिरि फिरि काइ माया जालें फथो । टलै केम धर्मसीह कहै आयौ टांकड़ो। परिहा माडी आप जंजाल उलूधौ माकडौ ।। १७ ॥ देइ आदर दीजें दान कहै द दी। माणस ( धर्मसी कहै आदर सुमुदौ । पाणी ते पिण दूध गिणो हित पारखी। परिहां आदर विण साकर ही काकर सारिखी।। १८ ।। धरौ सीख मोटानी एम कह्यो ध धै। वालक जीव्या हंस पड्या घाजे वधै। शुकै दीधी सीख कढ़ी काना तलै । परिहा राज गमाइ गयो बलिराइ रसातले ।। १६ ।। न करो मन मे रीस कह छै युन नौ। मानी छै जो रीस तोइ वइगा मनो। ताण्या अति धर्मसीह कहै तूट तणी । परिहा राइ पड्यां मन मोती जाइ न रेहणी ॥ २० ॥ परदेसी संप्रीति म करि कहीयो प पे । जोरै उठी जाय तठा सं तन तपे । बार बार चीतारै धर्मसी बत्तियां । परिहा छटै नयणा तीर भराय छत्तिया ।। २१ ।।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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