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________________ छप्पय वावनी ४६ - - - मित्र मिलता मुहा मुह, हेज हियै मिले हीस । पल एक फेरया पूठ, नेह तिल मात न दीसै । आरीसा जिम आज, मीत बहुला जग माहे । कलि चातक जिम कोइ, नेह राखें निरवाह । मेह नै देखि पिउ पिउ मगन पिउ पिउ कहै पर पूठ पिण। कीजीय मीत धर्मसी कहै, गुणवतौ कोइक गिण ॥ ४६ ॥ याचना यश रस सिद्धि बुद्धि सिरी, सदा ए पाच सनूरें । देह वस देवता, दे कह्या नास दूरैं । शोक अने सन्ताप, पिंड आवै परंसेवो । भय कपणि गति भंग, निसत निज लाज न सेवो । ताणतौ माण ताके तिको, ऊंधे मुख सु आगणो । लेखवौ दुरस सगले लखण, मरण सरीखो मागंणो ॥४७॥ IP - दान राजा राखें रजा वांगिया प्रसिद्ध वधाएँ । वैरी न करें बुरो, सेवक सहु काम सुंधारै । भाइ सहु है भीर, गुणी जन कीरति गावें ।' स्वासणि छ आसीस, सासरै रह्यो सुहावै । सहु भूत प्रेत ग्रह है समा, सुपात्रे ह धर्मसी सही । देखियो दान दीधौ थकौ, नेट कठे निष्फल नहीं ।। ४८॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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