SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७ छप्पय बावनी ४७ व्यापारि विणज विद्या विभव, ज्ञान ध्यान धर्मसीख गिण । सहु काज करण उद्यम सिरै, विणौँ सहु इक उद्यम विण ॥३६॥ धरिजें मन धीरज हाणि हम करे हा हा । लागा वहै ज लार, हांणि दुख त्रोटा लाहा । भाति अनैं ऊभत्ति प्रगट दिन राति 'पटतर । ऊरौं वलि आथमै निरखि रवि चंद निरन्तर । ग्रह राह परब आयो ग्रसै, परगट देखि पारिखा । किण हीक देइ धर्मसी कहै, सहु दिन न हुवै सारिखा ।४।। नारी विरहणी निरखि ताम कोकिल कुहकी धन । चद त्रिविध पुनि पौन, मदन अति व्यापि लयौ मन । वायस राहु भुयग रुद्र च्यारु अरि लख । तिन कौ करि है नास बहुरि इक बात विशेपें । कोकिला कठ शशधर बदन पौन स्वास पुनि मदन मन । मेरेहु पहुं जिन ज्यान हुइ, लिखि-२ मेटण इण जतन ।। ४१॥ पुण्य पाप पातिसाह चाउ सहु दिसि पग चल्ले । साच झूठ हुइ सचिव, हुस आछु दिसि हल्ले । ज्ञान ध्यान भ्रम गरब, पील चल्ले चिहु पट्ट। शम दम छल बल अश्व, अढी पग फिरै उवट्ट । चखु चलण ऊठ कोणे चलें, प्यादा गुण मद पग्ग पगि ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy