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________________ धर्मवद्धन ग्रन्थावली - लालच दाम खाटण लुब्ध, दुसमन शास्त्रारा उसे। कर इता दूर धर्मसी कहै, विद्या भणिवा ने वसे ॥६॥ अष्ट मद उच्च जाति मद एक महा कुल मद स माती। लाभ तणे मद लोल, तेम तप मद स ताती । रूप मद वलि रसिक, बहुल बल मद पिणं वाहे । विद्या मद वलि विविध, अधिक अधिकार उच्छाहे । मद आठ ईय मत 8 मसत, अस्त उदय रवि अटकली। आविया देखि करीवा अमल, प्यादा जमराए पली ||१|| कुपात्रप्रीति अगतै अरकरी मडी तव छाया मोटी । दोड पहुर मै देखि, छीजती छिण छिण छोटी। त्यु कुपात्र की प्रीति, आदि-बहु आगे ओछी । सजन प्रीति सुरीति, सही धुरि होइ सकोछी । वधता विशेष धर्मसी वधे, वलत छाह जिम विस्तर । प्रांत ग्ण सज्जण दुजण, परखी देख पटतर ॥१॥ कर्मगति ऋतु ग्रीष्म रान मे, तृपो मृग दव थी बाठो । पडियो पासी पाउ नेट साइ तोडे नाठे । ओ कुडि उलंघि, आयो जिण दिसि आहेड़ी । . तेण चलायो तीर, फाल माहि टाल फंफेड़ी । नासता कूप आयो निजर, निस मेटण पड़ियौ तठे। कर्म गति देखि धर्मसी कहै, कहो नाठौ छूट कठे ।। १२ ।।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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