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________________ कुंडलिया बावनी क हल मकना नेगल महा. समिधरि केहरि नह नगला इसवा सोहिला. नन इसपो सुतल । मन द्रह्मणो मुसकत्ल, चल जिगरी अति चंचल | रहे नहीं थिर दिन राति अधिक वार्यैध्वज अंचल | सिण दिलगीर खुवाल, तुरत के सीला तत्ता कहे धर्मसी मुसकल मन्न दमणा नवमत्ता | म०॥४६॥ दान योजन वारें जाणियै आवै गाज अवाज | दुनिया में दात्तार रौ. सगलै जस सिरताज । सगले जस सिरताज, आज लगि वलीयौ आवैं । अरवक' सदा उगता करण रौ पहुर कहा । साधु सुपात्रे सैंण, भगित करि दीजै भोजन । धरम अनै धर्मसीह, जस है फेइ जोयन । ३१ शील राखीजें जतने रतन, खड्यां ह्र बहु खोड | सील तथा तिम धर्मसी, कीजें जतन करोड । कीजै जतन करोड, होड इणरी किण होवें । सीले सुर सेवक, जगत जस कहि मुख जोवै । नित सतीया रा नाम, उठि परभात अखीजै" । सीलै लहीजैं लील, रतन जतन राखीजे | रा०||४८|| Towns १ सूर्य २ कहने मे आता है ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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