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________________ २६ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली - मा माझे मल मूत्र झरे, अन तणा सहु अंश । तौ पिण खावा तरसीया, माणस पापी मंस । माणस पापी मस, अस पिण सूग न आणे । परगट्ट जीवा पिंड, जीभ स्वादै नवि जाणें । दुरगति लहिस्यै दुःख, सवल आ करणी सामे। अधरम महा असुञ्चि, झरै मल मूत्रे झाझे । मा० ॥३०॥ मदिरा - न हुवे सुधि बुद्धि नजर से, जाय लक्षण लाज । परगट मदिरा पान थी, एहा होई अकाज । एहा होइ अकाज, खान अखज पिण खावें। नावें कोई नजीक, अन्ध री ओपम आवे । इण कीधा अनरस्थ, द्वारिका नगरी दहवै। सुणै नहीं धर्मसीख, नजर मे सुद्धि बुद्धि न हवै । न० ॥३॥ वैश्यागमन टिपस करें लेवा टका, नहीं मन माहे नेह । राग करे इण सुरखे, गणिका अवगुण गेह । गणिका अवगुण गेह, छेह विन दाखै छिन में । सिल धोवी री सही, ओपमा छाजै इण मे। गया बहु लाज गमाइ, विहल हुआ वेश्या वसि । जाति कुजाति न जोडे, टका लेवा करैंटिप्पस । टि० ॥३२॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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