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________________ २४ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली सपूत गुरु जण सवे तज गरव, कम्मा घरि कूत । निवला नै ले निरवहै, साचा तिकै सपूत । साचा तिके सपूत, दूत जिम दौडें द्रुकै । खरा द्रव्य खाटि ने, मात पित आगलि सूक। मुखि मीठा सुभ मना, देखि सारा है दुरजण । सुपूत्र तिकै धर्मसीह, गरव तजि से4 गुरुजण । गु० ॥२४॥ सात सुख और दुख घट नीरोग शुभ घरणि, वलि नहीं रिण भय वात। सुपूत्र सुराज कटुव सुख, धर्मसीह कहै सात । धर्मसीह कहै सात, सात दुःख जाय न सहणा । दीसै घरि से दलिदा लोक वलि मांगै लहणा। . कलहणि नारी कुपुत्र, फिरण परदेस सगे फट । । । सवले दुख सातमी. घणो वृलि रोग रहैं घट । घट०।२५॥ पाडोस न रहे पाड़ोसैं निखर, करै मता घरि कूप । दुइ विढता मत देखि, भूडौ न कई भूप । भू डौ न कहे भूप, जप मत मोटा जोड़ी। झगड़ी न करें झूठ, आल न रमे धन ओडी। वैरी न करै वैद, गरथ पर नौ मत गर है । सुणे सैंण धर्मसीख, निखर पाडोसैं न रहे । न रहै । २६ ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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