SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौबीम तीर्थङ्कर पुराण * ७३ . MnOneDoCOM - muner NAa HAMARINDATIONALAILAINITARIANTAR पूर्व कृत शुभ कर्मों का उदय आया है जिससे आप जैसे महापुरुषोंका समागम प्राप्त हुआ है। आपके शुभागमनसे मुझे जो हर्ष हो रहा है वह बचनोंसे नहीं कहा जा सक्ता । साक्षात् परमेश्वर वृषभदेव जिनके पिता हैं, और चौदह रत्न तथा नौ निधियां अप्रमत होकर जिनको सदा सेवा किया करती हैं ऐसे आपके सामने यद्यपि यह मणि मुक्ताओंको तुच्छ भेंट शोभा नहीं देती तथापि प्रार्थना है कि महानुभाव सेवककी इस अला भेटको भी स्वीकृत करेंगे।' यह कहकर उसने भरतके कानों में मणिनयी कुण्डल और गले में मणिनयो हार पहिना दिग भात महाराज मगधविके नम्र व्यवह रसे बहुत प्रसन्न हुये। उन्होंने सुमधुर शब्दों में उसके प्रति अपना कर्तव्य प्रकट कर मित्रता प्रकट की। मगध भा कर्तब्ध पूरा कर अपने स्थान को वापिस चला गया। चवी भी विजय प्राप्त कर शिविर सेना स्थान र वापिस आ गये। विज. यका समाचार सुनकर चर्तीको समस्त सेना आनन्द से फूल उठो। उस हषध्वनि से सारे आकाशको गुजा दिया। फिर द क्षण दिशाके राजाओंको वश में करने के लिए चकवौने विशाल सेनाके साय दक्षिगको ओर प्रयन किया। उस समय भात महाराज उप्त गर और लणत गरके बोच में जो स्थल मर्ग था उसीर गमन कर रहे थे। वहाँ उनका वह विशाल सन्य लहराते हुर तीसरे सागरको नाई जान पड़ता था। इस तरह अनेक देशोंको उलंघन करते और उनके राजाओं को अपने आधीन बनाते हुये भरतजी इष्ट स्थान पर पहुंचे। वहाँपर उन्होंने इलायचीकी वेलोंसे मनोहर बनने सेना ठहराकर पूर्वकी तरह वैजयन्त महाद्वारसे दक्षिण लवणोदधिमें प्रवेश किया। और बारह योजन दूर जाकर उसकेअधिपति व्यन्तरदेवको पराजित कर वे वहांसे वापिस लौट आये। फिर उप्ती समुद्र और उपसमुद्र के वीचके रास्तेसे प्रस्थान कर पश्चिमको ओर रवाना हुये। कून कूमसे सिन्धु नदोके द्वारर पहुंवे वहाँ उन्होंने द्वारके बाहर हो चन्दन, नारियल, एला, लवंग आदिके वृक्षोंसे शोभायमान बनों में सेना टहराकर पहले की तरह लवण समुदमें प्रवेश किया और बारह योजन दूर जाकर व्यन्तरोंके अधीश्वर प्रभातनामक देवको पराजित किया। विजय प्राप्त कर लौटे हुए सम्राट्का लेनाने शानदार स्वागत किया ।
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy