SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौथोस तीर्थङ्कर पुराण + ५२ - manteeranoaasrmront -saram youn Memes-anerywermerroragar । PIPATORIALWA EDICAUREDIOICELANGUAGEANCDAALEER R APTIWARIWARITR m नामसे, और उन युगको कृतयुग नामसे पुकारने लगे थे। जब भगवान् आदिनाथका प्रजाके ऊपर पूर्ण व्यक्तित्व प्रगट हो गया तब इन्द्रने समस्त देवो के साथ आकर महाराज नालिराजकी सम्मति पूर्वक उनका राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेकके समय अयोध्यापुरीकी खप सजाय की गई थी, गगन चम्बी मकानों पर कई रंगकी पताकाएं फहराई गई थी, जगह जगह पर तोरण द्वार बनाकर उनमें मणिमयी बन्धन मालाएं वांधी गई थीं और सड़के सुगन्धित जलसे सींची जाकर उनपर हरी हरी दूध बिछाई गई थी जगद्गुरु आदिनाथका राज्याभिषेक था और देव देवेन्द्र उसके प्रवर्तक थे तब किसकी कलम तात है जो उस समयकी लमय शोभाका वर्णन कर सके। मणि खचित सुवर्ण सिंहासन पर बैठे हुए भगवान आदिनाथका तेजोमय मुख ठीक सूर्य के समान चमकना था। पास खड़े हुए बन्दीगण मनोहर शब्दों में उनकी कीर्ति गा रहे थे । महाराज नाभिराजने अपने हाथ से उनके मस्तकपर राज्य पह बाधा था। उस समय सनत्युमार और माहेन्द्र स्वर्गके इन्द्र चमर ढोल रहे थे और ईशान स्वर्गका इन्द्र शिरपर छत्र लगाए हुए था। सौधर्मेन्द्रने सभास्थलसें आनन्द नालका नाटक किया था जिससे समस्त देव दानव नर, विद्याधर वगैरह अत्यन्त हर्षित हुए थे। भगवान् आदिनाथने पहले प्रभावक गब्दों में सुन्दर मापण दिया जिसमें धर्म अर्थ जादि पुरषार्थीका स्पष्ट विवेचन किया गया था। फिर लघुता काट कर हुए सृष्टिका मार अपने कन्धोपर लिया था-राज्य करना स्वीकार किया था। अगदाका राज्याभिषेक समाप्त कर देव देवेन्द्र वगरह पने अपने स्थानों पर चले गये। ___ यह हम पहले लिख गए हैं कि वृषभ देवने प्रजाको लुव्यवस्थित बनाने के लिए उसले क्षत्रिय वेश ओ। गृद्र वर्णका विभाग कर दिया श! तथा उन्हें उनके याग्य कार्य सार लोप दिया था। लोग उक्त व्यवस्थाले सुखमय जीवन बिताने लगे थे। पर काल के प्रभावमे लोगो के हृदय उत्तरोत्तर कुटिल होते जाते थे इसलिए कोई कली वर्ण व्यवस्थाले क्रमका उल्लंघन भी कर बैठी थे। चह क्रमोल्लंघन आदिनाथको सहा नहीं हुआ इसलिए उन्होंने द्रव्य क्षेत्र काल | और भावका ख्याल रखते हुये अनेक तरहके दंड विधान नियुक्त किये थे। ATARRIEDMAAJMELATLINZALTI BRamREEEEEEEEEEE MALLociamaummaNDIEO EconcusLICATTA
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy