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________________ * चौबीस तीर्थकर पुराण * - 'अये मृगराज ! तुम इस तरह प्रतिदिन निर्बल प्राणियोंको क्यों मारा करते हो ? इस पापके फलसे ही तुमने अनेक बार कुयोनियोंमें दुःख उठाये हैं...... इत्यादि कहते हुए उन्होंने उसके पहलेके समस्त भव कह सुनाये । मुनिराजके बचन सुनकर सिंहको भी जाति स्मरण हो गया जिससे उसकी आंखोंके सामने पहलेके समस्त भव प्रत्यक्षकी तरह झलकने लगे। उसे अपने दुष्कार्यों पर इतना अधिक पश्चात्ताप हुआ कि उसकी आंखोंसे आंसुओंकी धारा बह निकली। मुनिराजने फिर उसे शान्त करते हुए कहा कि तुम आजसे अहिंसा व्रतका पालन करो। तुम इस भवसे दशवें भवमें जगत्पूज्य बर्द्धमान तीर्थङ्कर होंगे। मुनिराजके उपदेशसे वनराजसिंहने सन्यास धारण किया और विशुद्ध चित्त होकर आत्म ध्यान किया। जिससे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें सिंहकेतु नामका देव हुआ। मुनि युगल भी अपना कर्तव्य पूराकर आकाश मार्गसे बिहार कर गये। सिंहकेतु दो सागरतक स्वर्गके सुख भोगनेके बाद धातकी खण्ड द्वीपके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेह क्षेत्रमें मङ्गलावती देशके विजयापर्वतकी उत्तर श्रेणीमें कनकप्रभ नगरके राजा कनकपुख्य और उनकी महारानी कनकमालाके कनकोज्वल नामका पुत्र हुआ। बड़े होनेपर उसकी राजकुमारी कनकवतीके साथ शादी हुई। एक दिन वह अपनी स्त्रीके साथ मंदराचल पर्वत पर कोड़ा करने के लिये गया था। वहां पर उसे प्रियमित्र नामके अवधि ज्ञानी मुनिराज मिले। कनकोज्वलने प्रदक्षिणा देकर उन्हें भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और फिर धर्मका स्वरूप पूछा । उत्तरमें प्रियमित्र महाराजने कहा कि- धर्मों दयामयो धर्मे, श्रयधर्मेण नायसे । भुक्तिधर्मेण कर्माणि हन्ता धर्माय सन्मतिम् ॥ देहि भापहि धर्मात्त्वं याहि धर्मस्यभृत्यताम् । धर्मोतष्ठ चिरंधर्म पाहिमामिति चिन्तय ॥ -आचार्य गुणभद्र अर्थात्-धर्म दयामय है, तुम धर्मका आश्रय करो, धर्मसे ही मुक्ति प्राप्त होती है, धर्मके लिये उत्तम बुद्धि लगाओ, धर्मसे विमुख मत होवो, धर्मके - ३२
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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