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________________ * चौबीस तीथङ्कर पुराण * २१५ - - हुए हैं। महाराज ! पहले हम दोनों धातकीखण्ड दीपके रहने वाले थे पर अब तपश्चर्या के प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुए हैं। दूसरे ही दिन हम लोग अपराजित केवलीकी बन्दनाक लिये गये थे गो वहांपर आपका नाम सुनकर दर्शनोंकी अभिलाषासे यहां आये हैं। ____ भगवान नमिनाथ देवोंकी बात सुनकर अपने नगरको लौट तो आये पर उनके हृदयमें संसार परिभ्रमणके दुखने स्थान जमा लिया। उन्होंने सोचा कि यह जीव नाटकके नटकी तरह कमी देवका, कभी मनुष्यका, कभी तिथंच का और कभी नारकीका बेष बदलता रहता है। अपने ही परिणामोंसे अच्छे बुरे कर्मोको बांधता है और उनके उदयमें यहां वहाँ घूमकर जन्म लेकर दुःखी होता है । इस संसार परिभ्रमणका यदि कोई उपाय है तो दिगम्बर मुद्रा धारण करना ही है".........यहां भगवान ऐसा विचार कर रहे थे, वहां लौकान्तिक देवोंके आसन कंपने लगे जिससे वे अवधि ज्ञानसे सब समाचार जानकर नमिनाथजीके पास आये और सारगर्भित शब्दों में उनकी स्तुति तथा उनके विचारोंका समर्थन करने लगे। लौकान्तिक देवोंके समर्थनसे उनका वैराग्य और भी अधिक बढ़ गया। इसलिये उन्होंने सुप्रभ नामक पुत्रको राज्य दे दिया और आप उत्तर कुरु' नामकी पालकीपर सवार होकर 'चित्रवन' में पहुंचे। वहां दो दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर आषाढ़ कृष्णा दशमीके दिन अश्विनी नक्षत्र में शामके समय एक हजार राजाओंके माथ दीक्षित हो गये। देव लोग तपः कल्याणकका उत्सव मनाकर अपने-अपने स्थानपर चले गये। भगवान् नमिनाथको दीक्षाके समय ही मनापर्यय ज्ञान तथा अनेक ऋद्धियां प्राप्त हो गई थीं। वे तीसरे दिन आहार लेनेकी इच्छाले वीरपुर नगरमें गये। वहांपर दत्त राजाने उन्हें विधि पूर्वक आहार दिया था। तदनन्तर उन्होंने छद्मस्थ अवस्थाके नौ वर्ष मौन पूर्वक व्यतीत किये । छद्मस्थ अवस्थामें भी उन्होंने कई जगह विहार किया। नौ वर्षके बाद वे उसी दीक्षा-वन-चित्र-चन में आये और वहां मौलिश्री-नकुल वृक्षके नीचे दो दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर विराजमान हो गये । वहींपर उन्हें मार्ग शीर्ष शुक्ला पौर्णमासीके दिन अश्विनी नक्षत्र में - - -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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