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________________ * चौबीस तीर्थकर पुराण १६१ भगवान कुन्थुनाथ ररक्ष कुन्थु प्रमुखान हि जीवान दया प्रतानेन, दयालयो यः । स कुन्थुनाथो दयया सनाथ: करोतु मां शीघ्र महो सनाथन् ॥ -लेखक "दयाके आलय स्वरूप जिन कुन्थुनाथने दयाके समूहसे कुन्थु आदि जीवोंकी रक्षा की थी वे दयायुक्त भगवान् कुन्थुनाथ मुझ अनाथको शीघ्र ही सनाथ करें।" (१) पूर्वभव वर्णन जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें सीता नदीके दाहिने किनारेपर एक वत्स देश है। उसकी राजधानी सुसीमा नगरी थी। उसमें किसी समय सिंहस्थ नामका राजा राज्य करता था। वह बहुत ही बुद्धिमान और पराक्रमी राजा था। उसने अपने बाहुबलसे समस्त शत्रु राजाओंका पराजय कर उन्हें देशसे निकाल दिया था। उसका नाम सुनकर शत्रु राजा थर-थर कांपने लगते थे। एक दिन राजा सिंहस्थ मकान की छनपर बैठा हुआ था कि इतने में आकाश से उलका ( रेखाकार तेज ) पात हुआ। उसे देखकर वह सोचने लगा कि 'संसारके सब पदार्थ इसी तरह अस्थिर हैं। मैं अपनी भूलसे उन्हें स्थिर समझ कर उनमें आसक्त हो रहा हूँ। यह मोह बड़ा प्रबल पवन है जिसके प्रचण्ड वेसे बड़े-बड़े भूधर भो विचलिन हो जाते हैं। यह बड़ा सघन तिमिर है जिसमें दूरदर्शी आंखें भी काम नहीं कर सकतीं। और यह वह प्रचण्ड दावानल है जिसकी ऊमासे वैराग्य लताएं झुलस जाती हैं। इस मोहके कारण ही प्राणी चारों गतियोंमें तरह तरहके दुःख भोगते हैं। अब मुझे इस मोहको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये।" ऐसा सोचकर उसने पुत्रके लिये राज्य देकर पति वृषभ मुनिराजके पास दीक्षा ले ली और कठिन तपस्याओंसे अपने शरीरको सुखा दिया। उक्त मुनिराजके पास रहकर उसने ग्यारह अङ्गों
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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