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________________ * चौवीस तीथकर पुराण * ३१ - - amarpawan - राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेवके साथ तीर्थंकर देवके समीप दोक्षित होकर तपस्या करने लगे। वज नाभिने वहींपर दर्शन विशुद्धि विनय सम्पन्नता, शीलवतोंमें अतिचार नहीं लगाना, निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना, संवेग, शक्त्यनुसार तप और त्याग, साधु समाधि, वैयावृत्य, अर्हद्भक्ति, आचार्य भक्ति,बहुश्रुत भक्ति,प्रवचन भक्ति,आवश्यकापरिहाणि मार्ग प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य इन सोलह भावनाओंका चितवन किया जिस से उन्हें तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध हो गया। आयुके अन्त समयमें वे श्रीप्रभ नामक पर्वतको शिखरपर पहुंचे और वहां शरीरसे ममत्व छोड़कर आत्म समाधिमें लीन हो गये। जिसके फल स्वरूप नश्वर मनुष्य देहको छोड़ कर सर्वार्थ सिद्धिमें अहमिन्द्र हुए। वहां उनकी आयु तेतीस सागर प्रमाण थी। और शरीर एक हाथ ऊंचा सफेद रंगका था। वे कभी संकल्प मात्रसे प्राप्त हुए जल चन्दन आदिसे जिनेन्द्र देवकी पूजा करते और कभी अपनी इच्छासे पासमें आये हुए अहमिन्द्रोंके साथ तत्व चर्चाएं करते थे । तेतीस हजार वर्ष चीत जानेपर उन्हें आहारकी अभिलाषा होती थी सोभी तत्काल कण्ठमें अमृत झर जाता था जिससे फिर उतने ही समयके लिये निश्चिन्त हो जाते थे । उन का श्वासोच्छ्वास भी तेतीस पक्षमें चला करता था। संसारमें उन जैसा सुखी कोई दूसरा नहीं था। यह अहमिन्द्र ही आगे चलकर कथानायक भगवान वृपभनाथ होगा। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, सुवाहु, महावाहु, बाहु, पीठ, महापीठ और धनदेव भी जो इन्हींके साथ दीक्षित हो गये थे। आयुके अन्तमें सन्यास पूर्वक शरीर छोड़कर सर्वार्थ सिद्धि विमानमें अहमिन्द्र हुए थे। इन सबका वैभव वगैरह भी अहमिन्द्र बज नाभिके समान था। ये सभी भगवान वृषभदेवके साथ मोक्ष प्राप्त करेंगे। -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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