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________________ * चौबीस तीथकर पुराण * १३५ BARMA स्वयंप्रभ जिनेन्द्रको नमस्कार किया और नमस्कार कर मनुष्योंके कोठेमें बैठ गये। जिनेद्रके सुखसे संसारका स्वरूप सुनकर वे इतने प्रभावित हुए कि वहीं पर गणधर महाराजसे दीक्षा लेकर तप करने लगे। युवराज अजितसेनको पिताके वियोगसे बहुत दुख हुआ पर संसारकी रीतिका विचार कर वे कुछ दिनों बाद शान्त हो गये । मन्त्रिमण्डलने युवराज का राज्याभिषेक किया। उधर महाराज अजितजय को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ और इधर अजित सेनकी आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ । 'पहले धर्म कार्य ही करना चाहिये' ऐसा सोचार अजितसेन पहले अजितंजय महाराजके कैवल्य महोत्सवमें शामिल हुए। फिर वहांसे आकर दिग्विजयके लिये गये। उस समय उनकी विशाल सेना एक लहराते हुए समुद्रकी तरह मालूम होती थी। सब सेनाके आगे चक्र रत्न चल रहा था। क्रप क्रमसे उन्होंने समस्त भरतक्षेत्रकी यात्रा कर उसे अपने आधीन बना लिया। जब चक्रधर अजितसेन दिग्विजयी होकर वापिस लौटे तव हजारों मुकुट बद्ध राजाओंने उनका स्वागत किया । राजधानी अयोध्यामें आकर अजितसेन महाराज न्याय पूर्वक प्रजाका पालन करने लगे। ___इनके राज्यमें कभी कोई खाने पीनेके लिये दुःखी नहीं होता था। एक दिन इन्होंने मासोपचासी अरिंदम महाराजके लिये आहार दान दिया जिससे देवोंने इनके घर पञ्चाश्चर्य प्रस्ट किये थे। सच है-पात्र दानसे क्या नहीं होता ? किसी दिन राजा अजितसेन वहांके मनोहर नामक उद्यानमें गुणप्रभ तीर्थङ्करकी वन्दना करनेके लिये गये थे। वहां पर उन्होंने तीर्थङ्करके सुखसे धर्मका स्वरूप सुना, अपने भवान्तर पूछे, और चारों गतियोंके दुःख सुने जिससे उनका हृदय बहुत ही विरक्त हो गया। निदान उन्होंने जितशत्रु पुत्रको राज्य देकर अनेक राजाओंके साथ जिन दीक्षा धारण कर ली। उन्होंने अतिचार रहित नपश्चरण किया और आयुके अन्तमें नमास्तिलक नामक पर्वत पर समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर सोलहवें अच्युत स्वर्गके शान्ति कार विमानमें इन्द्र पद प्राप्त किया। वहां उनकी आयु बाईस सागर की थी, तीन हाथका शरीर था, शुक्ल लेश्या थी, वे बाईस हजार वर्ष बीत जाने पर एक बार मानसिक आहार मारमा -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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