SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौबीस तीर्थङ्कर पुराण * २४५ उसकी आयु एक सागर प्रमाण थी । वहाँके सुख भोगनेके बाद वह जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रके सूतिका नगरमें अग्निभूति ब्राह्मणकी गौतमी स्त्रीसे अग्नि सह नामका पुत्र हुआ। पूर्व भवके संस्कारसे उसने पुनः परिब्राजककी दीक्षा लेकर प्रकृति आदि पच्चीस तत्वोंका प्रचार किया और कुछ समताभावोंसे मर कर सनत्कुमार स्वर्गमें देव हुआ। वहांपर वह सात सागरतक सुन्दर सुख भोगता रहा । फिर आयु पूर्ण होनेपर इसी भरतक्षेत्रके मन्दिर नगरमें गौतम ब्राह्मणकी कौशाम्बी नामकी स्त्रीसे अग्निमित्र नामका पुत्र हुआ। वहां भी उसने जीवनभर सांख्यमतका प्रचार किया और आयुके अन्तमें मरकर महेन्द्र स्वर्गमें देव पदवी प्राप्त की। वहांके सुख भोगनेके बाद वह उसी मन्दिर नगरमें सालङ्कायन विप्रकी मन्दिरा नामक भार्यासे भारद्वाज नामका पुत्र हुआ। वहां भी उसने त्रिदण्ड लेकर सांख्यमतका प्रचार किया तथा आयुके अन्तमें समता भावोंसे शरीर त्यागकर माहेन्द्र स्वर्गमें देव हुआ। वहां वह सात सागरतक दिव्य सुखोंका अनुभव करता रहा । बादमें वहांसे च्युत होकर कुधर्म फैलानेके खोटे फलसे अनेक त्रस स्थावर योनियोंमें घूम-घूमकर दुःख भोगता रहा । फिर कभी मगध [ बिहार ] देशके राजगृह नगरमें शाण्डिल्य विप्रकी पाराशरी स्त्री से स्थावर नामका पुत्र हुआ। सो वह भी बड़ा होनेपर अपने पिता-शाण्डिल्य की तरह वेद वेदांगोंका जाननेवाला हुआ । पर सम्यग्दर्शनके बिना उसका समस्त ज्ञान निष्फल था। उसने वहां पर भी परिब्राजककी दीक्षा लेकर सांख्य मतका प्रचार किया और आयुके अन्तमें मरकर माहेन्द्र स्वर्गमें देव पदवी पाई। वहां उसकी आयु सात सागर प्रमाण थी। आयु अन्त होनेपर वहांसे च्युत होकर वह उसी राजगृह नगरमें विश्वभूति राजाकी जैनी नामक महारानीसे विश्वनन्दी नामका पुत्र हुआ । जो कि बड़ा होनेपर बहुत ही शूरवीर निकला था । राजा विश्वभूतिके छोटे भाईका नाम विशाखभूति था। उसकी भी लक्ष्मणा स्त्रीसे विशाखनन्द नामका पुत्र हुआ था जो अधिक बुद्धिमान नहीं था। इस परिवारके सब लोग जैनधर्ममें बहुत रुचि रखते थे। मरीचिका जीव विश्वनन्दी भी जैन धर्ममें आस्था रखता था। किसी एक दिन राजा विश्वभूति शरद् ऋतुके भंगुरनाशशील बादल
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy