SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौबीस तीथङ्कर पुराण २३३ - किसी एक दिन राजा अरविन्दने ब्राह्मण पुत्र मरुभूतिके लिये कार्यवश बाहिर भेजा । घरपर मरुभूतिकी स्त्री थी। वह बहुत ही सुन्दरी थी। मौका पाकर कमठने उसे अपने षडयन्त्रमें फंसाकर उसके साथ दुर्व्यवहार करना चाहा । जब राजाको इस बातका पता चला तब उसने मरुभूतिके आनेके पहले ही कमठको देशसे बाहिर निकाल दिया। कमठ जन्मभूमिको छोड़कर यहाँ वहां घूमता हुआ एक पर्वतके किनारेपर पहुंचा। वहां पर एक साधु पश्चाग्नि तप तप रहा था । कमठ भी उसीका शिष्य बन गया और वहीं कहींपर वज. नदार शिलाको लिये हुए दोनों हाथोंको ऊपर उठाकर खड़ा खड़ा कठिन तपस्या करने लगा। इधर जब मरुभूमि राजकार्य करके अपने घर वापिस आया और कमठके देश निकालेके समाचार सुने तथ उसका हृदय टंक ढूंक हो गया। मरुभूति सरल परिणामी और स्नेही पुरुष था। उसने कमठके अपराध पर कुछ भी विचार नहीं कर उसे वापिस लानेके लिये राजासे प्रार्थना की। राजा अरविन्दने उसे कमठको बुलानेकी आज्ञा दे दी। मरुभूति राजाकी आज्ञा पाकर हर्षित होता हुआ ठीक उस स्थानपर पहुंच गया जहांपर उसका बड़ा भाई तपस्या कर रहा था। मरुभूति क्षमा मांगनेके लिये उसके चरणोंमें पड़कर कहने लगा कि-पूज्य ! आप मेरा अपराध क्षमाकर फिरसे घरपर चलिये । आपके बिना मुझे वहां अच्छा नहीं लगता।'....."क्षमाके वचन सुनते ही कमठका क्रोध और भी अधिक बढ़ गया। उसकी आंखें लाल-लाल हो गई। ओंठ कांपने लगे तथा कुछ देर बाद 'दुष्ट-दुष्ट' कहते हुए उसने हाथों में की वजनदार शिला मरुभूतिके मस्तकपर पटक दी। शिलाके गिरते ही मरुभूतिके प्राण पखेरु उड़ गये । कमठ भाईको मरा हुआ देख कर अट्टहास करता हुआ किसी दूसरी ओर चला गया। ___ मरते समय मरुभूतिके मनमें दुर्ध्यान हो गया था इसलिये वह मलय. पर्वतपर कुब्जक नामक सल्लकी वनमें बज्रघोष नामका हाथी हुआ। कमठकी स्त्री वरुणा मरकर उसी वनमें हस्तिनी हुई जो कि वजघोषके साथ तरह-तरह की क्रीड़ा किया करती थी। जब राजा अरविन्दको मरुभूतिकी मृत्युके समाचार मिले तब वह बहुत दुःखी हुआ। वह सोचने लगा-कि जैसे चन्द्रमा - ३०
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy