SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ - * चौबीम तीथकर पुराण * mina इन सबक्री पहिन कुन्ती और माद्रीका विवाह हस्तिनापुरके कौरव यंशी राजा पाण्डु के साथ हुआ था। राजा पाण्डु कुन्ती देवीसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जन तथा माद्री देवीसे नकुल और सहदेव इस तरह पाँच पुत्र हुए थे । जोकि राजा पाण्डुकी सन्तान होनेके कारण पीछे पाण्डव नामसे प्रसिद्ध हो गये थे। बहनोईका रिस्ता होनेके कारण समुद्र विजय आदि दश भाई ओर पाण्टु आदिका परस्परमें ग्वध स्नेह था । एक दुसरेको जी-जानसे चाहते थे। कुछ समय बाद छोटे भाई वसुदेवके घलराम और कृष्ण नामके दो पुत्र हुए जो घड़े ही पराक्रमी थे। श्रीकृष्णने अपने अतुल्य पराक्रमसे मथुराके दुष्ट राजा कंसको मल्ल युद्धमें मार दिया था जिससे उनकी 'जीवद्यशा' स्त्री विधवा होकर रोती हुई अपने पिता जरासंधके पास राजगृह नगरमें गई । उस समय जरासंधका प्रताप समस्त संसार में फैला हुआ था। वह तीन खण्डका राजा था । अर्द्ध चक्रवर्ती कहलाता था। पुत्रीकी दुःखभरी अवस्था देखकर उसने श्रीकृष्ण आदिको मारनेके लिये अपने अपराजित नामके पुत्रको भेजा पर वसु देव, श्रीकृष्ण आदिने उसे युद्ध में तीन सौ छयालीस वार हराया। अन्तमें अपराजित, पराजित होकर अपने घर लौट गया। फिर कुछ समय बाद जरासंधका दूसरा लड़का कालयवन श्रीकृष्णको मारनेके लिये आया। उसके पास असंख्य सेना थी। जब समुद्र विजय आदिको इस घातका पता चला तय उन्होंने परस्परमें सलाह की कि अभी श्रीकृष्णकी आयु कुछ पड़ी नहीं है इसलिये इस समय समर्थ शत्रुसे युद्ध नहीं करना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वे सब शौर्यपुरसे भाग गये। और विन्ध्यावटीको पारकर समुद्रके किनारेपर पहुंच गये । इधर काल यवन भी उनका पीछा करता हुआ जब विन्ध्यावटीमें पहुंचा तब वहां समुद्र विजय आदिकी कुल देवता एक बुढ़ियाका रूप बनाकर बैठ गई और विद्या बलसे खूब आग्नी जलाकर 'हा समुद्र विजय ! हा वसुदेव हा श्रीकण !' आदि कह कहकर विलाप करने लगी। जब काल यवनने उससे रोनेका कारण पूछा तब उसने कहा कि 'मैं एक बूढ़ी धाय हूँ। हमारे राजा ममत विजय आदि दशों भाई श्रीकृष्ण आदि पुत्रों तथा समस्त स्त्रियोंके साथ शत्रके भयसे भागे जा रहे थे सो इस प्रचण्ड अग्निके बीचमें पड़कर असमय
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy