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________________ १७२ *चौवीस तीथर पुराण * - - - विषयोंकी ओर झुकती ही नहीं थी। वे उस आत्मीय आनन्दका उपभोग करते थे जो असंख्य विषयों में भी प्राप्त नहीं हो सकता । यही अहमिन्द्र आगेके भवमें भगवान धर्मनाथ होगा और अपने दिव्य उपदेशसे संसारका कल्याण करेगा। (२) वर्तमान परिचय जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें किसी समय रनपुर नामका एक नगर था उसमें महासेन महाराज राज्य करते थे। उनकी महादेवीका नाम सुव्रता था । यद्यपि महासेनके अन्तःपुरमें सैकड़ों रूपवती स्त्रियां थीं तथापि उनका जैसा प्रेम महादेवी सुव्रता पर था वैसा किन्हीं दूसरी स्त्रियोंपर नहीं था। महासेन बहुत ही शुर वीर और रणधीर राजा थे। उन्होंने अपने यायलसे बड़े पड़े शत्रुओके दांत खट्टे कर अपने राज्यको बहुत ही सुविशाल और सुदृढ़ बना लिया था। मन्त्रियोंके ऊपर राज्य भार छोड़कर वे एक तरहसे निश्चिन्त ही रहते थे। महादेवी सुव्रताकी अवस्था दिन प्रति दिन यीतती जाती थी पर उसके कोई सन्तान नहीं होती थी। एक दिन उसपर ज्यों ही राजाकी दृष्टि पड़ी त्योंही उन्हें पुत्रकी चिन्ताने धर दयाया। वे सोचने लगे कि जिनके पुत्र नहीं है संसारमें उनका जीवन निःसार है। पुत्रके अङ्ग स्पर्शसे जो सुख होता है उसकी सोलहवीं कलाको भी चन्द्र, चन्दन, हिम, हारयष्टि मलया निलका स्पर्श नहीं पा सक्ता । जिस तरह असंख्यात ताराओंसे भरा हुआ भी आकाश एक चन्दमाके बिना शोभा नहीं पाता है उसी तरह अनेक मनुष्योंसे भरा हुआ भी यह मेरा अन्तःपुर पुत्रके बिना शोभा नहीं पा रहा है। क्या करूं? कहां जाऊं? किससे पुत्रकी याचना करूं, इस तरह सोचते हुए राजा का चित्त किसी भी तरह निश्चल नहीं हो सका । उनका पदन स्याह हो गया और मुंहसे गर्म निश्वास निकलने लगी। सच है-संसारमें सर्वसुखी होना सुदुर्लभ है। राजा पुत्र चिन्तामें दुखी हो रहे थे कि इतनेमें बनमालीने अनेक फल फूल भेंट करते हुए कहा 'महाराज ! उद्यानमें प्राचेतस नामके महर्षि आये हुए हैं। उनके साथ अनेक मुनिराज हैं जो उनके शिष्य मालूम होते हैं। 'उन सबके समागमसे पनकी शोभा अपूर्व ही हो गई है। एक साथ छहों। - -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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