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________________ १२४ * चौबीस तीथङ्कर पुराण * -na क्रमसे अधाकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप भावोंसे मोहनीय कर्मका क्षयकर बारवां क्षीणमोह गुणस्थान प्राप्त किया। और उसके अन्तमें ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अन्तराय इन तीन घातिया कर्माका क्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया। अब तीनों लोक और तीनों कालके अनन्त पदार्थ उनके सामने हस्तामलकवत् झलकने लगे। देवोंने आकर कैवल्य प्राप्ति का उत्सव किया। इन्द्रकी आज्ञा पाकर कुवेरने विस्तृत समवसरण बनाया। उसके बीचमें स्थित होकर पूर्णज्ञानी योगी भगवान् सुपार्श्वनाथने अपनी मौन मुद्रा भंगकी-दिव्य उपदेश दिया। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, उत्तम क्षमा आदि आत्म धर्मोंका स्वरूप समझाया। चतुर्गति रूप संसारके दुःखोंका वर्णन किया, जिसके भयसे श्रोताओंके शरीरमें रोमांच हो आये । कितने ही आसन्न भव नर नारियोंने मुनि आर्यिकाओंके व्रत ग्रहण किये। और कितने ही पुरुष स्त्रियोंने श्रावक-श्राविकाओंके व्रत धारण किये । उपदेश के बाद इन्द्रने उनसे अन्य क्षेत्रोंमें विहार करने के लिये प्रार्थना की थी अवश्य, पर वह प्रार्थना नियोगकी पूर्तिमात्र ही थी. क्योंकि उनका विहार स्वयं होता है । अनेक देशोंमें घूम कर उन्होंने धर्मका खूब प्रचार किया। असंख्य जीव राशिको संसारके दुःखोंसे छुटाकर मोक्षके अनन्त सुख प्राप्त कराये। अनेक जगह विहार करनेसे उनकी शिष्य परम्परा भी बहुत अधिक हो गई थी। कितनी ? सुनिये उनके समवसरणमें चल आदि पंचानवे गणधर थे, दो हजार तीस ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्वोके ज्ञाता थे, दो लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस: शिक्षक थे, नौ हजार अवधि ज्ञानी थे, ग्यारह हजार केवल ज्ञानी थे, पन्द्रह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक थे, नौ हजार एक सौ पचास मनापर्यय ज्ञानी थे और आठ हजार छह सौ वादो थे। इस तरह सब मिलकर तीन लाख मुनिराज थे। इनके सिवाय मीनार्या को आदि लेकर तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएं थीं। तीन लाख श्रावक, पांच लाख श्राविकाएं असंख्यात देव देवियां और संख्यात तिथंच थे। विहार करते करते जब उनकी आयु सिर्फ एक माह बाकी रह गई, तथ
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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