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________________ १२० * चौबीस तीर्थर पुराण * - - - - रह गया था। दिशाएं ही उसके वस्त्र थे आकाश मकान धा, पथरीली पृथ्वी शय्या थी, जंगलके हरिण आदि जन्तु उसके बन्धु थे, रातमें असंख्य तारे और चन्द्रमा ही उसके दीपक थे । वह सरदी, गरमी, और वर्षाके दुःख बड़ी शान्तिसे सह लेता था । क्षुधा, तृपा आदि परीपहोंका सहना अब उसके लिये कोई बड़ी बात नहीं थी। उसने आचार्य अर्हन्नन्दनके पास रहकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन किया, जिससे उसके जगत्में धार्मिक क्रान्ति मचा देनेवाली तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृतिका पन्ध हो गया । इस तरह उसने यहुत दिनों तक तपस्या कर खोटे कर्माका आना-आम्रव यन्द कर दिया और शुभ कर्मों का आना प्रारम्भ कराया। आयुके अन्तमें समाधि पूर्वक शरीर छोड़कर वह मध्यम ग्रैवेयाकके सुभद्र विमानमें जाकर अहमिन्द्र हुआ। वहां उसकी आयु सत्ताइस सागर प्रमाण धी, शरीरकी ऊंचाई दो हाथकी थी, लेश्या शुक्ल थी। वह सत्ता. ईस हजार वर्ष बीत जाने पर एक यार मानसिक आहार ग्रहण करता था। और सत्ताईस पक्ष बाद एक पार सुगन्धित श्वास लेना था। वहां वह इच्छा मात्रसे प्राप्त हुई उत्तम द्रव्योंसे जिनेन्द्र देवकी प्रतिमाओंकी पूजा करता और स्वपं मिले हुर देवोंके माथ तरह तरहकी तत्वचर्चाएं करता था । ___जो कहा जाता है कि 'सुखमें जाता हुआ काल मालूम नहीं होता' वह बिल्कुल सत्य है । अहमिन्द्रको अपनी बीतती हुई आयुका पना नहीं चला। जय सिर्फ छह माहकी आयु पाकी रह गई तब उसे मणिमाला आदि वस्तुओं पर कुछ फीकापन दिखा। जिससे उसने निश्चय कर लिया कि अब मुझे यहां से बहुत जल्दी कूच कर नरलोकमें जाना होगा। उसे उतनी विशाल आयु वीत जाने पर आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि 'मैंने अपना समस्त जीवन यों ही विता दिता दिया, आत्म कल्याणकी ओर कुछ भी प्रयत्न नहीं किया, इत्यादि विचार कर उसने अधिक रूपसे जिन अर्चा आदि कार्य करना शुरू कर दिये । यह अहमिन्द्र ही अग्रिम भवमें भगवान् सुपार्श्वनाथ होगा। अब जहां उत्पन्न होगा वहांका कुछ हाल सुनिये। - - - .
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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