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________________ (८५) • उदय से है सो कहते हैं, निद्रा अर्थात् जिस नींदवाले को जगाते साथ हो सुख से जागता है, दूसरी निद्रा निद्रा जिसकी कुछ छेड छाड करने से दुःख से जागता है, तीसरी निद्रा का नाम प्रचला है, सो बैठे को या ऊभे हुए को प्राती है, चौथी प्रचला प्रचला . घोचालते हालते हुए को भाती है, और पांचमी नींद जिसका नाम थिणोनी है वो अतिकठिन निद्रा है उस निद्रा वाले को उ... स समय बहोत ताकत श्राजाती है पो निद्राधाला उस नींद में अनेक काम करि आता है तथा सैंकडों मन वोझ उठासज़ा है। ये नव प्रकृति दरिशनावरणयि कर्म की है, दारशनाबरणी नामा . पाप कर्म ने जीवका देखने का गुन दबाया है, इसका क्षयोपस्म होने लेंजीव पांचहन्द्रिय और चतूदरिशनचक्षूदरिशनरभवधि दरिशन३ ये आठ बोल पाता है और सर्वथा क्षय होनेसे केवल दरिशन . पाता है। तीसरा धन घातिक पाप कर्म मोहनीय है जिसके नदय से मतवाला याने अव्यक्त होके मित्थ्या प्ररूपना करता है तथा उससे अशुद्ध कर्तव्य का टाला नहीं होता है अर्थात् जिन आशा . वाहरकी करणी में लिप्त रहता है, समकित मोहनीय सें सम्यक्त्व नहीं स्पर्शती, और चारित्र मोहनीय में चारित्र गुन याने संयमी नहीं होता तथा छै जीवनी काय की हिन्सा में रक्त रहता है । दरिशन मोहनीय को उपस्माने से अर्थात् दबाने से, जीव उपस्म समाकित पाता है, क्षय करने से क्षायक समकित शंका फंखारहि'त ज्यो सास्वती है सो पाता है, और क्योपस्म होने सें. क्षयोपसमानुसार क्षयोपस्म समाकित पाता है । चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से सर्व व्रत चारित्र नहीं होता है, उपसमांन से उपस्म चारित्र निर्मल पाता है, सर्वथा क्षय होनेसे क्षायक चारित्र होता है, और क्षयोपस्म होने से यथाक्षात चारित्र बिना बाकी च्यार चारित्रों की प्राप्ती होती है । तात्पर जीवके ज्यो उपस्प भाष नि. पन्न हुए सो मोहनीय कर्म को उपस्माने से है, क्षायक भाष निरूपन्न हुए सो फर्मों को क्षय करने से, और क्षयोपस्म भाव मिष्प- . हुए सो च्यार घातिक कर्मों को क्षयोपस्माने से होता है, . जीवके जैसे जैसे भाप कर्मों के संयोग वियोग से निष्पन्नहोते हैं । पैसा २ ही वाम जीपका है, और घोही नाम कमाँ का है।: . . .
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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