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________________ (८९) 'जायक नसूझै लिगारो । देखवा सरी दरिशना चरणी कर्म; जीवरै जावक कीधो अंधारो पा। ॥ १४ ॥ दशिनावरणी क्षयोपस्म होवे जब, तीन क्षयोपस्म दरिशन पामें ते जीवो । दरिशनावरणी सर्व क्षय हुयां थी, केवल दरिशन पामें 'ज्यूं घट दीवो ॥ पा ॥ १५॥ तीजो घण घाति 'यो मोह कर्म छै, तिणरा उदयसुं जीव हु। मत. वालो । सूधी श्रद्धारै लेखै मृढ मिथ्याती, मांग, कर्तव्यरो पिण न हुवै टालो ॥ पा ॥ १६ ॥ मो. हनीय कर्मनां दोय भेद कद्या जिन, दरशन मोहनीय चारित्र मोहनीय कर्म । इण जीवरा नि. ज गुण दोनूं बिगाडया, येक समकित ने दूजो चारित्र धर्म ॥ पा ॥ १७ ॥ दरिशन मोहनीय' उदय हुबै जब, शुद्ध समकतीरो जीव होवै मि. स्थ्याती। चारित्र मोहनीय कर्म उदय जब, चारित्र खोय हुवै छकायारो घाती॥ पा॥ १८॥द. रिशन मोहनीय कर्म उदय हुवां सुं, शुद्ध श्रद्धा 'समकित नहीं श्रावै । दरिशनं मोहनीय उपस्म हुवै जब, उपस्म समकिंत निरमल पावै ॥-पा॥ *॥ १६ ॥ दरिंशन मोहनीय जावक क्षय होयां, जब
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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