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________________ . (७७). सब को पाय पुन्य हुश्रा तथा ऐसे ही लैण कहिए जगहें जमीन सैण कहिए सयन पाटयाजोटा श्रादि, वत्थ कहिए वस्त्र भी सकल. को दिये पुन्य हुधा तो सकल में बेस्यां कलाइ आदि सब जाव आगये तो फिर उनकी श्रद्धासें तो किसी को किसही तरह की वस्तु देनसे पुन्यही होता है किन्तु देनेसे पाप तो होता ही नहीं। है सब को देनेके परिणाम अच्छेही है, तो फिर यही क्यों जैसा अन्न पुन्य समुचै है वैसाही मन पचन , काया पुन्य भी समुच ही है. मन भला प्रबते तोभी पुन्य और बुरां प्रवत्तें तोभी पुन्य वचनसे. प्रियकारी कहे तोभी पुन्य और कुबचन गाली गलोच आदि वो.' लैं तोभी पुन्य, और काया भली प्रबर्तावै तोभी पुन्य तथा बुरी प्रवर्तीव तोमी पुन्य तो फिर काया से जीवन मारे.तो पुन्य और मारे लोभी पुन्य, क्योंकि उस जगहें तो भली चुरी का नाम नहीं: कहा है सिर्फ इतनाहीं कहा है काया पुन्ने, यहि क्यों फिरतोनमस्कार पुन्य भी ऐसहीं समझाना, कि कुत्ते कन्वे बेस्यां कसाई आदि सब जीवों को नमस्कार करनेसें पुन्योपारजन होता है । परंतु नहीं २ऐसा नहीं समझना चाहिए, सतपुरुष और गुणी जनों को ही बंदने से पुन्य होता है निरगुणी कुपात्रों को बंदना : करनेसे तो पापही होगा, ऐसे ही मन वचन काया भली.परे निरखद्य कर्त्तव्य में बरतने से पुन्य होता है परंतु सावध जिन प्राक्षा : बाहर का मन बचन काया के जोग बरताने से पुन्य बंध नहीं होता पापही का बंध है, नवों ही बोलों को इसहीमाफिक समझना चाहिए । जैसे मन बचन काया के जोग सावध वरताने से पुन्य नहीं बैले ही अन्न पानी सचित देनेसे पुन्य नहीं । जिसकार्य की जिन श्राशा है वोहकार्य निर्वद्य है और जिस कार्य की जिन श्राशा नहीं वो कार्य सावध है, सावध कार्य से कदापि पुन्य नहीं बंधता है सावध से तो पापही का बंध है, मवाही प्रकार जिन श्राक्षा माहि और निरवंद्य हैं, साधूमुनिराजो को कल्पै सोही वस्तु इस जगहै बताई है यदि सकल जीवों को देने से पुन्योपारजन होता तो परिग्रह पुग्ने भी कहते श्राभूषण तथा गाय भैंस . मादि अनेक वस्तुवों का नाम बतलाते, परंतु पतला फैसे परि.
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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