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________________ (६२.), धहै; उले जीव वयालीस प्रकारसे भोगता है सो वर्णन पहली ढाल में किया ही है, वुद्धिवान जनोको निर्पक्ष होके पुन्य और पुन्यकी करणी की पहिचानकरणी चाहिए, महानुभावो जिस. करणीलें पुन्य निपढ़ है उस करणी से अशुभ कर्मोंकी निरजरा निश्चय हा होती है और उसही करणी करणेकी श्रीजिनेश्वर देवोंकी श्राज्ञा है परंतु पुन्यक लिए करणी करणकी आज्ञा नहीं है इसमें किञ्चित् भी शंका नहीं रखणी चाहिए, कितनेहीं साधु जैनी नाम धराके जिन कथित नाग से बिमुल होके कुपात्रोको देने में भी पुन्य प्ररूप्रतहैं उनकी ज्ञानमयीचक्षु मिथ्यात्तमयी मोतियां चिन्दलें अच्छादित होरहे हैं लोकहते हैं सचित पानी जो आप्यकाय , केस्थावर एक बिन्दु में असंख्या जीव हैं और उस में वनस्पती के अनन्ते जीवों की नियमा है वो किसीको पानेसे धर्म और पुन्य होः ताहै ऐसी कहने वाले अज्ञानी भ्रममें भूलेहुए हैं. कई कहते हैं साधुकोतो देनेसे तीर्थकरादि पुन्य प्रकृतिका वन्ध होताहै और साधु विना सबको देनेसे अनेरी पुन्य प्रकृति बंधती है ऐसाथी.. ठाणांग सुत्रमे कहाहै सो ऐसा कहना मिथ्या है श्रीठाणां अंग सूत्रके मूलपाठ में तो ऐसा कहाही नहीं है, किसी २ ठाणां अंग को प्रतिम अर्थम उपरोक्त लिख्या है सो भी सवठाणां अंगकी में नहीं है इसकी तहकीक करणे से मालूम होजायगा विवेकी जीवों को खयाल करना चाहिए कि जीव हिन्साकरिके साता उपजाने सें धर्म और पुण्य कैसे होगा, अब शास्त्रों में पुन्यकी करणी का. वर्णन कहाहै लो कहते हैं, । ॥ढाल॥ .. ॥ श्रावक श्रीवर्द्धमानरारेलाल तथा ।। ॥ हूं तुज आगल स्यूं कहुं कन्नईया एदेशा ।। ___ पुन्ध निपजै शुभजोगसूरेलाल । तै शुभ जोग । जिन श्राज्ञा म्हांय हो भविकजन ॥ ते करणी? निर:
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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