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(४१.) जाणजी ॥ हिवः॥ ४६ ।। उत्क्रप्टो खन्ध पुद्गल: तणं,जब सम्पूर्ण लोक प्रमाणजी । आंगुलरै भाग असंख्यातमें, जघन्य खन्ध येतलो जांणजी ॥हिव॥ ॥५०॥ अनन्त प्रदेशीयो खन्धहुरै, येक प्रदेश क्षेत्रमें समायजी । ते पुद्गल फैलै मोटो खन्ध हुश्रे, ते सम्पूर्ण लोकरै म्हांयजी ॥ हिव ॥ ५१ ॥ समुचय पुद्गल तीनलोक में, खाली ठोर जगां नहीं कांयजी। मां सांमां फिर रह्या लौकमें, येक ठा; म रहै नहीं रहायजी । हिव ॥५२॥ स्थिति च्यारूं ही भेदां तणी, जघन्य येक समय तामजी । उत्कृष्टी असंख्यात कालरी, ये भाव पुदगल तणा परिणाम जी॥ हिव ॥५३ ॥ पुद्गलरो स्वभाव? यहवो, अनन्ता गलैं ने मिलजायजी । तिस पुदगलरा भावरी, अनन्ती काहि पर्यायजी ॥ हिव ।। ५४ ॥ जेजे बस्तु निपजै पुदगलतणी, तेतो सघली विललायजी, त्याने भाव पुदगल श्रीजिन कह्या, द्रव्यतो ज्युरो ज्युं रहै ताहायजी ॥ हिव ।। ५५ ॥ श्राठ कर्म नें शरीर प्रसास्वता, येह निप्पन्ना हुआ छै तायजी । तिणसें भाव पुद्गल कहया तेहनें, द्रव्य निपजायो नहीं निपजायजी ।। हिव।। ५६॥