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________________ विर्षे शब्द न सुऐ तिवारजी ॥ कदा विषैरा शब्द: कानां में पाड़ियां । राग द्वेष न करै लिगारजी ।। ॥ १६ ॥ चक्षु इन्द्री रूप सुं सलीनता । प्राणः इन्द्री गंध सुंजांणजी ॥रश इन्द्री रश सूनें स्पर्श इन्दी. स्पर्श सुं । श्रुत इन्द्री ज्यूलोज्यो पिछाणजी आया। ॥ १७ ॥ क्रोध उपाजियां रूंधण करणों । उदय आयो निरफल करणुं तांमजी ॥ मान माया लो. भइम हिज जाणों । कषाय सलेहणां तप हुदै श्रामजी ।। या ॥ १८ ॥ पाडवा मन ने रूंध देणों । भलो मन प्रवविणों तांमजी ।। इमहिज वचन काया न जाणों । जोग सलेहणियां तप हुवै प्रामजी ।। या ! १९ || स्त्री पशु पंडक रहित थानक सेवै । ते पिण शुद्ध निरदूषण जांणजी।। पीढ पाटादिक निरदोष सवै । विवित सैणाशण तप येम पिछाणं जी ।। या ॥ २०॥ ॥ भावार्थ ॥ निरजरा अर्थात् निरमला जीव देशतः होय सो निरजरा है .. सो किस करणी करणे से होता है सो कहते हैं-भूष तृषा शांत ताप आदि अनेक प्रकार से कष्ट उदय होय उसे सम परिणामा से सहन करें तब अशुभ कर्मों का क्षय होय अर्थात् जीव से कम अलग होते हैं, वे दो प्रकार से होते हैं काम निरजरा और स... ' काम निरजरा-नरकादिक के दुःख भोगने से सहज ही जीव हल :
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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