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________________ . (१५८॥ हो ।। ४ ।। देश व्रत समायो सर्व ब्रतमें । ज्यु । निरजरा समायी मोक्ष मांहि हो । सु ॥ नि । ॥ ६४ ॥ देश थकी ऊजलों ते निरजरा । सर्व ऊनलों ते, जीव मोख हो ॥ सु । तिण सं निरजराने मोक्ष दोनूं जीव छै । उज्वल गुण जीवस निरदोष हो ।। मु ॥ नि ॥६५॥ जोड कीधी छै निरजरा औलखायचा । श्रीजीद्वारा शहर मझार हो । मु । सम्बत् अद्वारे वर्ष छपनें । फागण सुद दसमी गुरुवार हो ॥४॥ नि॥६६॥ ॥ भावार्थ ॥ वीर्य के तीन भेद हैं बाल वीर्य १ परिडत वीर्य २ वाल पण्डित वीर्य वाल वार्य तो पहिला गुण ठाणां तक है, पण्डित बीर्य छट्ठा गुण ठाणां से चौदमा गुणठाणां तक और वालपण्डित वाय.सिर्फ पांच में गुणठाणे ही है, यह तीनूं ही वार्य जीव का उज्वल गुन. है अंतराय कर्म अलग होने से प्रगट होती है, क्षयोपस्म भाव की वीर्य तो बारमा गुण स्थान तक है और क्षायक भाव की वीर्य तेरम चौदमें गुणस्थान है, अव्रती को बाल, सर्व व्रतीको पारडत,. और बतावती को वालपण्डित कहते हैं, जब जीव वीर्य को फो। डता है तब जोगी द्वारा कर्तव्य करता है सो सावध निरवद्य दो. नू है परंतु वार्य गुन सावद्य नहीं है वीर्य तो क्षयोपस्म तथा क्षायक भाव है, लब्धि वीर्य को तो बार्य अर्थात् शक्ति और करण वीर्य को जोग कहा है, जहांतक पुद्गलों का संयोग है वहांतक फरण बीर्य है इसलिये कर्ण बौर्य को जोग कहा है जबतक जीव पुद्गलों को ग्रहण करता है तबतक जोगों की वर्तना है, पुद्गलों
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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