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________________ ( १३३ ) ते श्रावै शुक्ल ध्यान ध्यायां थकां । चारित्र छेहला तीन गुणाणहो॥ भ ॥ सं ॥ २६ ॥ चारित्रावरणी क्षयोपस्म हयां । क्षयोपस्म चारित श्रावै निधानहो । भ || उपस्म हुवां उपस्म चारित्र हुवै खय हां हायक चारित्र प्रधान हो|भासं॥२७॥ चारित निज गुन जीवरै जिन कह्यो । ते जीवसुं न्यारा नहिं हायहों ।। भा। मोहकर्म अलग ही प्रगट्या । त्यांरा गुनसु हा मुनिराय ॥ भ ॥सं| 11 २८॥ ॥ भावार्थ । कोई कहै कपाय और जोगके पचखाण सूत्र में कहेहैं तोफिर अकपाय संचर त्याग करने से क्यों नहिं होता है जिसका उत्तर यह है कि सूत्रमै तो शरीर के पचवारण कहेहैं लेकिन शरिर के पचखाण कैसे होसके हैं क्योंकि यह शरीरतो जीवके चर्म स्वासो खास पर्यत है तब त्याग कैसे होय परंतु शरीर से अशुभ योग न वर्ताना या शरीर की सार संभार न करना ये त्याग होते हैं सेही कपाय न करना प्रमाद न करना जोगों की चंचलता को रोकना ये त्याग होते हैं, क्योंकि कपाय और प्रमाद करना ये जोगों की प्रवर्तनाहै इसलिये इन्हें त्यागने से साधु के व्रत संघर पुए होता है परंतु कयाय और प्रमादके त्याग करनेसे अकषाय तथा अप्रमाद संवर नहिं होता है, एसेही सर्व लावद्य जोगोंको त्याग कर किञ्चित फिश्चित शुश जोगों को रूंधने से अजोग संबर नहिं होता, अजोग संवर तो सर्वथा प्रकार जोगों को संधसे होताहै; सर्व सावध जोगों को सर्वथा प्रकार त्यागने से समें प्रत संवर होके सर्वथा प्रकार अबूतके पाप नहिं लगते हैं,
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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