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________________ (११४) भंड उपग्रणसूं कोई करै अजयणां । तेहिज श्राश्रव जाणारे ।। श्राश्रव भाव तो जीव तणां छै । यान रूडी रीत पिछाणोंरे ॥ आ॥ १६ ॥ सुवी कुसंग सबै ते पाश्रव बीसमुं। सुची कुशंग सेवै ते जीवोरे ॥ सुची कुशंग सेवै तिण ने अजीव श्रद्धै छै । त्यांरै ऊंडी मिथ्यातरी नींवोरे ॥ श्रा ॥ १७॥ द्रव्ये जोगां नै रूपी कह्या छै । ते भाव जोगांरै लारो रे ।। द्रव्ये जोगांतूं कर्म न लागे । भाव जोग छै श्राश्रवद्धारोरे ॥श्रा ॥ १८ ॥ आश्रव नैं कर्म कहै छै अज्ञानी । तिण लेखै ऊंधी दरशी रे ।। पाठ कर्मी ने चोफरंसी कहै छै । काया रा जोग तो छै श्रठ फरसीरे ॥ श्रा ॥ १६ ॥ श्राश्रवन कमें कहे त्यारी श्रद्धा । ऊठी जठाथी झूठीरे ॥ त्यांरा बोल्यां री ठीक पिण त्यांने नहीं छै । त्यांरी हीया निलाइनी फूटीरे ॥ श्रा.॥२०॥ ॥ भावार्थ ॥ .., शास्त्रों में तो आश्रय को कर्मों का करता कहा है करता है सो जीव है जीव है सो अरूपी है परंतु अशांनी जीप भ्रम में भूल के पाश्रव को अजीव कहते हैं अर्थात् कर्मों को ही प्राश्रय श्रद्धत हैं, लेकिन श्राश्रव और कर्म अलग अलग हैं, आभव द्वारा जीव कम लगाता है तो विचारणा चाहिए कि द्वार और द्वार होके
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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