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________________ (११०) . सावध करणी करके पाप लगाता है और दरशण मोह के 'उदय: से मित्थ्यात्वी होताहै मित्थ्याश्रद्धना ही सित्थ्यान्न आश्रय है, भगवान ने तो पाश्रवको अरूपी जगह २ कहा है परंतु मूढ मती: अाधवको रूपी कहते हैं पांच आभयों को तथा अग्रतको कृष्णा दि तीन मांठी अर्थात् मोटो तेश्याके परिणाम तथा लक्षण कहे हैं जो मांठी लेश्या जीवह तो उसके तक्षण अजीव फैल होसकते हैं, फिर मोह कर्म के.संयोग लें सैले और वियोगरे ऊजले जोग फहे हैं जोगह से ही प्राव है, उमाध्ययमके गुबतोसमां अध्ययनमें जोग समुच्चय कहे हैं लोगों का वर्णन साधुवाके गुनों में है साधु के गुग शुद्ध है निरमल हैं अरूपी, तथा ठाणांगक तीसरे ठाणे फहा है मनपचन काया के भाव जोगाहै सो लीव का विर्थ गुनका व्यापार हैं इस ही लिये जोग भासमा कही है जोग श्रातमा है सोश्ररूपी है औरफरता है सोनोगधाश्रन है,नाश्रवको जीव प्रधान के लिये स्वामी श्री भीलनीने मारबाड- देशान्तर गत पाली शहरमें सम्बत् १८५५ आसोश सुद १२ रविवार को ढाल जोडके यथा तथ्य विस्तार कहाँहे जिसका भावार्थमैंने तुच्छ; धुद्धी प्रमाण किया है इस में कोई अशुद्धार्थ हो उसका मुझे बारस्वार मिच्छामिदुमड़ है ! आपका हितेच्छु: जोहरी गुलाबचंद लूणिया ॥दोहा॥ आश्रय कर्म भावानां वारणां । त्यांने विकल कहै छै कर्म ॥ श्राश्रव द्वार में कर्म येक हिज कहै। ते भूला अज्ञानी भर्म ॥१॥ कर्म श्राश्रव छै. जुचा जुवा ! जुवा; जुवा त्यांरा सुभाव कर्म में
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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