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________________ (१०८) रोकण हार ॥६३॥ और कर्मासुं जीव काय । मोह कर्म थकी विगडाय । विगडयो करें सावक व्यापार । तेहिजछै भावदार ॥ ६४ ॥ चारित्त मोह उदय मतवालो । तिणसं सावद्यरो न हुने टालो । ते सावद्यरो सेवण हारो। तेहिजछै आश्रय द्वारो ॥६५॥ दरशण मोह उदय श्रद्धै ऊधो । हाते मारग न आवै सूधो । ऊधी श्रद्धारो श्रवण हार । ते मित्थ्यात्व आश्रवद्धार ।। ६६ ।। मूढ कहै श्राश्रव नैं रूपी । वीरकहयो पाश्रवनँ अरूपी। सूत्रां मैं कहयो ठाम ठाम । श्राश्रवने श्ररूपी तांम ॥६७॥ पांच श्रावनें अबत तांम । मांठी लेश्या तणां परिणाम । मांठी लेश्या प्ररूपीछे रहाय । तिणरा लक्षणरूपी किम थाय ॥ ६८ ॥ ऊजला ने मैला कहया जोग । मोह कर्म संजोग विजोग । ऊजला जोग मैला थाय । कर्म झडियां ऊजला होनाय ॥६६॥ उत्राध्ययन गुणतीसम म्हांय । जोग समुचय कहया जिनराय । जोग सचे निरदोपमें चाल्या । त्याने साधारा गुण मांहि घाल्या ॥७॥ साधांरा गुणछै शुद्धमांन । त्यांने श्ररूपी कहया भगवान । त्यां जोग भाव में रूपी
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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