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________________ (१०६) श्रात रौद्र ध्यानसे पाप लगता है, भात रौद्र ध्यान है सो जीव है और उसहीया नाम भाजप है इत्यादि अनेक प्रकारोले जीव कर्मों का करता है सोही नाभव है. गुरुवोका पक्ष ग्रहण करके मुख लोग श्राश्रयद्वार को शाजीव कहत ह सो पीपल बंधी सुख समान ताणते है. यथा जैल येक दृष्टोंबंध मंत्रवादी येक गाम में श्राया और अपना तमासा फरक लोकोको माधर्य उपजाने लगा जितने त. मासबीन थे उन सबकी नजर बंध करके पोपलके दरख्तके कोई पदार्थ रस्सीस मजबूत बांध दीया और उन तमाल बीनाको कहा सब मिलके इलें खींचो ये पदार्थ निसहाय और पीपलसें कितना दूरहै तब सब तमासं वानान मिलके उसे बंचा परन्तु वो तो थाडी दुरभी नहीं सरका इतनी देरम येक बादमी अामान्तर जाता हुवा उस जगह आया उसकी नजर बंधी हुई नहीं थी तब मोह देखके तमाल वानसि कहने लगा तुम लोक बड़े मूर्ख हो पीपलके बंधी हुई तुमसे कसे निचगी ये सुनके तमासवीन कहने लगे क. हां बंधी हुई है हम सब लोक देखें सो तो झूठे और तू येकाला सच्चा भला येह भी कोई बात है हमारे नेत्र नहीं है ? क्या हम सब अंधे हैं। यह कह बैच ताण करने लगे परन्तु उस सामान्तर जाने वाले और सत्य कहने वाले की बानांकसीन भी न मानी ऐसेही दीर्घ कर्मी जचिोंके ज्ञान नेत्र मित्थ्यात्व मयी मंत्रसे कुगुरुवाने बंधकर रखने हैं जिससे वो लोक सदगुरुवाका कहना तो मानते हैं नहीं और अपनी जिद्द करके जीवके लक्षणोंको अजीव श्रद्धतें हैं परन्तु येह नहीं समझते कि मिथ्यात्व श्राश्रव है सो विपरीत श्रद्धा है और विपरीतं श्रद्धना किसकी है तथा हिन्साके अत्याग भाव किसके हैं और शब्दादिक का अभिलाषी कौन है कपायी कोन है मन वचन कायाकै जोगीका व्यापार किसका है तथा मेरा तेरा समझना किसका है और पंच इन्द्रियोंकी विषयमै प्रवर्तता और विषयी कोन होता है, परंतु ईत्यादि उपरोक्त सवजीवके कार्य हैं तात्पर जीवके समपूरण असंख्याता प्रदेश पूर्व कर्मानुसार चला चल होते हैं तव न्यूतन कर्म प्रदेसको अवता है अर्थात् ग्रहण करता है सो जीव है अस उमहीका नाग पाश्रव द्वार है, और
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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