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________________ बनारसीविलासः १८३ kukkaketutatuntukatrinakskitrkest अब इनको विवरण कहूं, भावितरूप वखानि । अलखरीति अनुभवकथा, जो समझे सो दानि ॥ २ ॥ चौपाई। गो कहिये इन्द्री अमिवाना | बछरा उमंग भोग पय पाना । जो इसके रसमाहिं न राचा । सो सबच्छ गोदानी साँचा ॥३॥ कनक सुरंग सु अक्षर वानी। तीनों शब्द सुवर्ण कहानी ॥ ज्यो त्याग तीनहुँकी साता । सो कहिये सुवरणको दाता ॥४॥ ॐ परावीन पररूप गरासी । यो दुर्वृद्धि कहावै दासी ॥ ताकी रीति तलै बब ज्ञाता । तव दासीदातार विख्याता ॥५॥ तनमन्दिर चेतन घरवासी । ज्ञानदृष्टि घट अन्तरभासी || * समझे यह पर है गुण मेरा । मन्दिरवान होहिं विहिं चेरा ॥६॥ ॐ अष्ट महामद धुरके साथी । ए कुकर्म कुदशाके हाथी ॥ इनको त्याग कर जो कोई । गजदातार कहावै सोई ॥ ७॥ मनतुरंग चढ़ ज्ञानी दौरइ । लखै तुरंग औरमैं औरइ ॥ निज हगको निजरूप गहावे । सो तुरंगको दान कहावे ||८|| अविनाशी कुलके गुण गावै । कुल कलित्र सहुद्धि कहावै ॥ बुद्धि अतीत धारणा फैली । वहै कलत्रदानकी सैली ॥ ९॥ ब्रह्मविलास तेल खलि माया । मिश्रपिंड तिल नाम कहाया ॥ पिंडलप गहि द्विविधा मानी । द्विविधा तजै सोइ तिलदानी।।१०111 लो व्यवहार अवस्था होई । अन्तरमि कहावै सोई ॥ तज व्यवहार जो निश्चय माने । भूमिदानकी विधि सो जाने । SattakutatistakutekarkikutikkukkutekekutuRepkartikutakutkukuXXXXNXXX kukkuteketitutatutetstatutetitikkukukrtainikkak
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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