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________________ २२ जैनग्रन्थरत्नाकरे देवलोक ताको घर आँगन; राजरिद्ध से तलु पाय । ताको तन सौभाग्य आदि गुन; केलि विलास करै नित आय || सोनर त्वरित तैरै भवसागर; निर्मल होय मोक्ष पद पाय । द्रव्य भाव विधि सहित वनारसि; जो जिनवर पूजै मन लाय १० शिखरिणी । कदाचिन्नातः कुपित इव पश्यत्यभिमुखं विदूरे दारिद्र्यं चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् । विरक्ता कान्तेव त्यजति कुगतिः सङ्गमुदयो न मुञ्चत्यभ्यर्ण सुहृदिव जिनाच रचयतः ॥ ११ ॥ ज्यौं नर रहे रिसाय कोपकर; त्यों चिन्ताभय विमुख चखान । ज्यौं कायर शंकै रिपु देखत; त्यों दरिद्र भाजै भय मान || ज्यौं कुनार परिहरै खंडपति; त्यौं दुर्गति छंडै पहिचान । हितुज्यौं यिभौ तजै नहिं संगत; सो सब जिनपूजाफल जान ११ शार्दूलविक्रीडित | यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोऽचर्यते यस्तं वन्दत एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वन्द्यते । यस्तं स्तौति परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स स्तूयते यस्तं ध्यायति कुप्तकर्मनिधनः स ध्यायते योगिभिः ॥ जो जिनेंद्र पूजै फूलनसों; सुरनैनन पूजा तिस होय । बंदैं भावसहित जो जिनवर; वंदनीक त्रिभुवन मैं सोय || shakka
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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