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जैनग्रन्थरताकर
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कवित्त माग्निक (३१ मात्रा) ॐ ज्यों जरमूर उखारि कल्पतरु, वोक्त मूढ़ कनकको खेत।
ज्यों गजराज बेच गिरिवर सम, कूर कुबुद्धि मोल खर लेत॥ जैसे छांडि रतन चिन्तामणि, मूरख काचखंडमन देत। तैसे धर्म विसार 'वनारसि धावत अधम विषयमुखहेत ॥६॥
शिखरिणी। अपार संसारे कथमपि समासाद्य नभवं
न धर्म यः कुर्याद्विषयसुखतृष्णातरलितः। वडन्पारावार प्रवरमपहाय प्रवहणं स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ॥ ७ ॥
सोरठा। ज्यों जल बूढ़त कोय, वाहन तज पाहन गहै । त्यो नर मूरख होय, धर्म छांडि सेवत विषय ॥ ७ ॥
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द्वार गाथा।
शार्दूलविक्रीडित। भक्तिं तीर्थकरे गुरौ जिनमते संघे च हिंसानृत
स्तेयाब्रह्मपरिग्रहव्युपरमं क्रोधायरीणां जयम् । सौजन्यं गुणिसङ्गमिन्द्रियदमं दानं तपोभावनां ॐ वैराग्यं च कुरुष्व निर्वृतिपदे यद्यस्ति गन्तुं मनः ॥८॥
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१ धतूरा. २ गर्दभ (गया),