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________________ Trtotstatestart tet.tattattattoot.tattttttta उत्थानिका । की प्रथा नहीं थी। हम समझते हैं, यह दोष जनसाहित्यपर सर्वथा नहीं लगाया जायेगा, गद्यके सैकड़ों ग्रन्थ जैनियोंके पुस्तकालयों में अब भी प्राप्य हैं । पद्यग्रन्थोंकी भी त्रुटि नहीं है, परन्तु । । उनमें नायकाओंका आमोद प्रमोद नहीं है । कैवल तत्त्वविचार और आध्यात्मिकरस की पूर्णताका उज्ज्चलप्रवाह है। संभव है कि, इस कारण आधुनिक कविगण उन्हें नीरस कहके समालोचना कर डालें परन्तु जानना चाहिये कि, शृङ्गाररस को ही रससंज्ञा नहीं है। म जिस समय भाषाग्रन्थोंकी रचनाका प्रारंभ हुआ है, उस समय जैनियोंके विलासके दिन नहीं थे। ये वडी २ आपदायें । झेलकर बड़ी कठिनतासे अपने धर्मको जर्जरित अवस्थामें रक्षित रख सके थे। कहीं हमारे अलौकिक-तत्त्वज्ञानका संसारमें अभाव न । हो जावे, यह चिन्ता उन्हें अहोरात्र लगी रहती थी, अतएय उनके विद्वानोंका चित्त विलास-पूर्ण-अन्धोंके रचनेका नहीं हुआ। और वे नायकाओंके विभ्रमविलासोंको छोडकर धर्मतत्वोंको भाषा लिखनेकेलिये तत्पर हो गये । धर्मतत्त्वोंको देशमाषामें लिखने की। आवश्यकता पडनेका कारण यह है कि, उस समय अविद्याका अंधकार बढ़ रहा था और गीर्वाणवाणी नितान्त सरल न होनेसे है लोग उसे मूलने लगे थे, अथवा उसके पढनेका कोई परिश्रम नहीं करता था। ऐसी दशा में यदि धर्मतत्त्वोंका निरूपण देशभाषामें न होता, तो लोग धर्मशून्य हो जाते । एक और भी कारण है वह यह कि, हमारे आचार्योंका निरन्तर यह सिद्धान्त रहा है कि, देश काल में भावके अनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिये, इसलिये देशमें जिस समय जिस भाषाका प्राधान्य तथा प्राबल्य रहा है, उस समय उन्होंने उसी माषामें अन्धोंकी रचना करके समयसूचकता व्यक्त की है। MARATHI tatuttitutekutteket-taketritrkuTuxnkrt.tkukitatutekatrintrietari a nakya
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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