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________________ ४७ . सुभाषितमञ्जरो ४७ सम्यग्दर्शन से बढकर सुख नही है दर्शनबन्धो न परो बन्धुदर्शनलाभान्न परो लाभः । दर्शनमित्रान्न परं मित्रं दर्शनमौख्यान्न पर सौख्यम् ॥ अर्था - सम्यग्दर्शन रूपी बन्धु से बढकर दूसरा बन्धु नही है, सम्यग्दर्शन रूपी' लाभ से बढकर दूसरा लाभ नही है, सम्यग्दर्शन रूपी मित्र से बढकर दूसरा मित्र नहीं है और सम्यग्दर्शन रूपी सुख से बढकर दूसरा सुख नही है ॥१११।। मभ्यग्दर्शन से बढकर बन्धु नही है सम्यक्त्वान्नापगे बन्धुः स्वामी विश्वहितंकरः। स्वर्गमुक्तिकरः पुमां पापघ्नश्च वृषप्रदः ॥११२॥ । अर्थ- मनुष्यो का सम्यग्दर्शन से बढकर दूसरा बन्धु नहीं है, सम्यग्दर्शन से बढकर दूसरा सर्व हितकारी स्वामी नही है, और सम्यग्दर्शन से बढकर दूसरा स्वर्ग तथा मोक्ष को प्राप्त कराने वाला, पापापहारी धर्म दायक नही है ।११२।। सम्यक्त्व रूपी चिन्तामणि की विशेषता केवलं धनमत्र-सुखं दुखं ददात्यहो । सम्यक चिन्तामणि विश्वसुखं लोकत्रये सताम् ॥११३।। अर्था- धन तो केवल इसी लोक मे सुख और दुख देता है
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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