SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१ सुभाषितमञ्जरो अर्थ- गुरुयो के दोष खोजने मे तत्पर रहने वाले पुरुष ससार रूपी सागर मे डूबते है सो ठीक ही है क्योंकि कालकूट विष के खाने से यदि मृत्यु होती है इसमे क्या पाश्चर्य है ? गुरु निन्दा से निन्धगति प्राप्त होती है वीतरागे मनो शरते यो देपं कुरुतेऽधमः । धर्मवनिर्जनः सोऽपि निन्यो निन्यगतिं व्रजेन ॥६॥ अर्थ - जो अधम पुरुष राग द्वेष से रहित उत्तम मुनि से द्वेष करता है वह धर्मात्माजनों के द्वारा 'निन्दित होता है तथा स्वय निन्दगति को प्राप्त होता है ॥६॥ अनिन्दनीय की निन्दा नरक का कारण है निन्दनीये का निन्दा स्वभावो गुणकीर्तनम् । अनिन्धषु च या निन्दा सा निन्दा नरकावहा ॥६६॥ शथं निन्दनीय लोगो को क्या निन्दा, करना है ? उनकी निन्दा तो स्वय प्रकट है। मनुष्य का स्वभाव तो गुणों का कीर्तन होना चाहिये । घनिन्दनीय लोगो की बोनिन्दा है वह नरक को प्राप्त कराने वाली है ॥६॥
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy