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________________ सुभाषितमरो निन्दा करने वाला पातकी होता है, स्वामी की निन्दा करने वाला कुठो होता है और गोत्र को निन्दा करने वाला कुल क्षया-कुल का क्षय करने वाला होता है ।।६।। अविद्यमान दोषो के कथन का फल यो भापते दोपमविद्यमानं सतां गुणानां ग्रहणे च मकः । स पापभाक स्याद् स विनिन्दरुश्च यशोवय प्राणवधानगरीयान् । अर्था- जो किसी के अविद्यमान दोष को कहता है और विद्यमान गुणो के ग्रहण करने मे मूक रहता है वह पापी है तथा निन्दक है क्योकि यश का घात करना प्राणघात से कही अधिक है ।।१२।। गुरु की निन्दा करने वाला स्वय दोषी होता है निन्दा य कुरुते सायोस्तया स्वं दूषयत्यसौ । रवौ भूतिं त्यजेयो हि मूर्ध्नि तस्यैव सा पतेत् ॥३३॥ अर्थ - जो गुरु की निन्दा करता है वह उस निम्मा के द्वारा अपने आपको दूषित करता है । जो सूर्य पर राख डालता है वह राख उसी के मस्तक पर पडती है ।।३।। गुरु निन्दक संसार सागर मे डूबते हैं निमज्जन्ति भवाम्भोधो यतीनों दोषतत्पराः । किं चित्रं यद्भवेन्मृत्यु कालकूटविषादनात् ॥६४"
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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