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________________ सुभाषितमञ्जरो अर्थ- स्वयं पूज्यनीय भी सज्जन, सज्जनों के पूजक होते है, क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा का उल्लंघन करने पर, पूज्य पना कसे हो सकता है ? किन्तु नहीं हो सकता है ॥३५६॥ सननों का चित्त कैसा होता है ? सम्पत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम् । आपत्सु तु महाशै नशि नामंघातककेशम् ॥३५७॥ अर्श - सम्पत्तियों में महापुरुषों का चित्त नीलकमल के समान कोमल होता है ओर आपत्तियों में किसी वडे पर्वत की शिलाओं के समान कठोर होता है। सज्जन संसर्गदोष से विकार को प्राप्त नहीं होते नहि संमगदोपेण विक्रियां यान्ति मायवः । भुजङ्ग वेष्टयमानोऽपि चन्दनो न विषायते ॥३५८॥ अर्थः- सज्जन पुरुष संसर्ग के दोष से विकार को प्राप्त नहीं होते सो ठीक ही है क्योकि सांपों से लिपटा हुआ चन्दन का वृक्ष विषरूप नहीं होता ॥३५८।। सजनों का स्वभाव कैसा होता है ? संपदि विनयावनता विपदि समारूढगर्वगिरिशिखराः । ज्ञाने मौनाभरणाश्चित्रचरित्रा जयन्ति भुवि सन्तः ।३५६
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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