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________________ १४० सुभाषितमञ्जरो सज्जनों का मन विकारी नहीं होता न हि विक्रयते चेतः सतां तद्धतुसन्निधौ । किं गोष्पदनलक्षोभी, क्षोमयेज्जलधे जलम् ॥३५४।। अर्थ- सज्जनों का मन विकार के कारण मिलने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता है। जैसे गाय के खुर प्रमाण गहरे जल मात्र को मैला कर सकने वाला मेढ़क समुद्र के जल को मैला कर सकता है ? नहीं ॥३५४॥ सज्जनों के बिना संसार का अस्तित्व नहीं । यत्र क्वापि हि सन्त्येव, सन्तः सार्वगुणोदयाः । क्वचित् किमपि सौजन्यं, नोचेल्लोकाकुतो भवेत् ।३५५॥ अर्थ सर्व के हितकारी गुणो सहित सज्जन, सर्वत्र नहीं मिलते है, कहीं कहीं पर ही होते है। क्योकि यदि संसार मे सज्जनता की गंध न रहे तो संसार का अस्तित्व ही नहीं रह सकेगा ।।३५५। सज्जन सज्जनों से पूज्य होते है । पूज्या अपि स्वयं सन्तः, सज्जनानां हि पूजकाः । पूज्यत्वं नाम किन्नु स्यात्, पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ॥३५६॥
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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