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________________ १३४ যুমালিনী __ रात्रिभोजन को धर्म बताने वाले दुःख प्राप्त करते है निशिभुक्तिरधर्मो ये धर्मत्वेन प्रकल्पितः । पापकर्मकठोराणां तेषां दुःखप्रबोधनम् ॥३३७॥ स - रात्रि में भोजन करना अधर्म है फिर भी इसे जिन्होंने धर्म बतलाया है वे पाप कर्म के उदय से क्रूर चिन है उन्हे दुःख की ही प्राप्ति होती है ॥३३७॥ रात्रिभोजी जिनशासन से विमुख है नक्तं दिवा च भुजानो विमुखो जिनशामने । कथं सुखी परत्र स्यानि तो नियमोज्झितः ॥३३८॥ अर्थ:- रात दिन भोजन करने वाला पुरुष जिन शासन से पराडमुःख है । जो व्रत रहित तथा नियम से शून्य है वह पर भव मे सुखी कैसे हो सकता है ? ॥३३८॥ ___एक उपवास का फल मिलता है श्रोमुहूर्तमानं यः कुरुते भुक्तिवर्जनम् । फलं तस्योपवासेन समं मासेन जायते ॥३३६॥ अर्थ - जो दिन में एक मुहूर्त के लिये भी आहार का त्याग करता है उसे एक मास मे एक उपवास के बराबर फल मिलता है ॥३३॥
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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