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________________ १२६ सुभाषितमञ्जरी धीर मनुष्य तपोवन मे प्रवेश करते हैं अन्वयवतमस्माक मिदं यत्सूनवे श्रियम् । दचा संवेगिनो धीराः प्रविशन्ति तपोवनम् ॥३१६॥ अर्थ:- यह हमारा वंश परम्परा से चला आया व्रत है कि पुत्र के लिये लक्ष्मी देकर संसार से भयभीत धीर मनुष्य तपोवन मे प्रवेश करते हैं ॥३१६॥ भाग्यवान् कौन है ? भाग्यवन्तो महासचास्ते नराः श्लाघ्यचेष्टिताः । कपिभ्र भङ्ग रां लक्ष्मी ये तिरस्कृत्य दीक्षिताः ॥३१७।। मर्थ- महा शक्तिशाली तथा प्रशंसनीय चेष्टा से युक्त वे ही मनुष्य भाग्यवान हैं जो वानर की मोह के समान चञ्चल लक्ष्मी को तिरस्कृत कर दीक्षित हुए हैं ॥३१७}} ___ तपस्वियों के तप का फल लौकान्तिकपदं सारं गणेशादिपदं परम् । तपाफलेन जायेत तपस्विनां जगन्नुतम् ॥३१८॥ अर्थ- तपस्वियों को तप के फलस्वरूप जगत् के द्वारा स्तुत लौकान्तिक देवों का तथा गणधरादिकों का श्रेष्ठ परम पर प्राप्त होता है ।।३१।।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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