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________________ सुभाषितमञ्जरी पूर्व धर्म के प्रभाव से दीक्षा की प्राप्ति होती है पूर्वधर्मानुभावेन पर निर्वेदमागतः । अभियाति महादीक्षां जिनेन्द्रमुख निर्गताम् ॥३१३ ॥ अ पूर्व धर्म के प्रभाव से यह जीव परमवैराग्य को प्राप्त हो जिनेन्द्र भगवान् के मुख से उपदिष्ट महादीक्षा को प्राप्त होता है ||३१३|| विरक्त पुरुष की अभिलाषा कदा नु विपयस्त्यक्त्वा निर्गत्य स्नेहचारकात् । आचरिष्यामि जैनेन्द्रं तपोनिटितिकारणम् ॥३१४॥ १२५ अ - सै स्नेह के कारागार से निकल कर तथा विषयों का परित्याग कर मोक्ष के कारण भूत जिनोपदिष्ठ तप का आचरण कब करूंगा ||३१४|| दीक्षा धारण करने की उत्कण्ठा प्रतिपद्य कदर दीक्षां विहरिष्यामि मंदिनीम् 1. क्षपयित्वा कदा कर्म प्रपत्स्ये मिश्रयम् ॥३१५॥ अर्ध्या में दीक्षा धारण कर पृथ्वी पर कब विहार करूंगा और कर्मीका क्षय कर सिद्धालय - सोक्ष को कब प्राप्त करूंगा १
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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