SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुभाषितमञ्जरी १०३ सद्धर्म की बुद्धि दुर्लभ है दुष्प्रापा गुरुकर्ममंचयवतां सद्धर्मबुद्धिनृणां जातायामपि दुर्लभः शुभगुरुः प्राप्तः स पुण्येन चेत् । कर्त न स्वहितं तथाप्यलममी स्वेच्छास्थितिव्याहताः किंव मः किमिहाश्रयेमहि किमाराध्येमहि मंसृतौ।।२५६॥ अर्थ - बहुत भारी कर्मों के संचय से युक्त मनुष्यों के लिये सद्धर्म की बुद्धि प्राप्त हो भी जाती है तो शुभगुरु का मिलना कठिन है, और यदि पुरयोदय से शुभ गुरु भी मिल जाता है तो स्वच्छन्द स्थिति से पीडित हुए मनुष्य आत्महित करने मे समर्थ नहीं होते । हम संसार मे किससे क्या कहे ? किस का आश्रय ले ? और किसकी आराधना करे ॥२५६।। कल्याण की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये दारा मोक्षगृहार्गला विषधरा भोगाश्चलाः सम्पदोह्यायुर्वायुकदर्थिताम्बुलहरीतुल्यं सशल्यं जगत् । देहः श्वभ्रनिकेतनं कुगतिदं विश्वं कुटुम्ब चलं ज्ञात्वेतीह यतध्वमेव विबुधा नित्याप्तये श्रेयमः ॥२५७॥ अर्थः- स्त्रियां मोक्षरूपी घर के पागल है, भोग सांप हैं, सम्पदाएं चञ्चल हैं, आयु वायु से प्रेरित जल की तरङ्गों
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy