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________________ - सुभाषितमञ्जरी दयाहीन मनुष्य के सदाचार कैसे हो सकता हैयस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चारितं कुतः । नहि भूतद्रहां शापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत् ।।१६६।। E - जिसे जीवदया नही है उसके सदाचार कैसे हो सकता है । वास्तव मे जीवघात करने वालो की कोई भी क्रिया श्रेयस्कर नही होती ।।१६६।। दयालु मनुष्य की दुर्गति नही होती दयालोरव्रतस्यापि दुर्गतिः स्याददुर्गतिः । प्रतिनस्तु दयोनस्यादुर्गतिः स्याद्धि दुर्गतिः ॥१६७।। मर्श - दयालु मनुष्य भले ही व्रत रहित हो, परन्तु उसको दुर्गति, दुर्गति नहीं रहती-वह दुर्गति मे पड कर भी सुखोपभोग फरता है । और निर्दय मनुष्य भले ही व्रत सहित हो परन्तु सुगति भी उसके लिये दुर्गति हो जाती है, वह अच्छी गति में पहुँच कर भी दुर्गति का पात्र होता है ।।१६७।। दयावान् मनुष्य ही दानी है सर्व दानं कृतं तेन सर्वे यज्ञाश्च भारताः। । । सर्वतीर्थाभिषेकाश्च यः कुर्यात्प्राणिनां दयाम् ।।१९८॥ सर्थ - हे पाण्डवो | जो प्राणियो को दया करता है उसने
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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